While going through some of the classics, I have often wondered if I were to rewrite them, how would they pan out. My idea is not to plagiarize someone’s work, but to demonstrate the versatility of the original piece to allow reader recreate their own interpretation and sometimes creation of a parallel idea…
The first one is “चिंगारी” or sparks… I have not been successful in finding the author for the original one. But you can hear it here – https://www.youtube.com/watch?v=3PLUX6DgT1A
फिर एक चिंगारी
सर्द सुनसान सियाह रात की तन्हाई में
बस इत्तेफाकन ही पनपती है मेरे ज़ेहन से
कुछ बचते बचाते हकीकत की दीवारों से
साथ इनके दौड़ लगाती हुई कई उम्मीदें
राख़ करेगी क्या पुरानी सोच ये चिंगारी
या फिर यूँ ही गुमनाम फ़नाह हो जाएगी
चुन चुन कर बटोरे हैं तंज-ओ-तजुर्बा भी कई
एहसास-ए-दुनिया ने दिया है मुझे ये ख्वाहिश
अपने सीने में नयी दुनिया का इक ख्वाब लिए
कर गुजरने की फिर एक बार बटोरी है हिम्मत
यकीन है दस्तूर-ए-दुनिया को भी निभाऊंगा
आज अपने चिंगारी से कहीं आग लगा जाऊँगा
क्या बिखरेगा इस बार जादू जमाने भर में
या रह जाएगी राख में घुट कर मेरी चिंगारी
मैं ये मानता हूँ की अभी अक्स इसका है नहीं
अगले चिंगारी की तलाश में ये भी दब जायेगा
मेरे साथ झिलमिलाते मेरे खुशफहमियों की तरह
हकीकत के चट्टानों से टकरा कर होते हैं फ़नाह
सपना समझ कर एक हलकी मुस्कान के साथ
एक मीठी नींद में ये सो जायेगा या खो जायेगा
बस आखरी साँसों में जा पहुंची है ये चिंगारी
वक़्त और हालत से जूझ कर कुछ थक सी गयी
सहमी हुई एहसासों को दिल में थामें
कहीं से ढूंढती है एक हवा फिर पनप जाने को
एक फूँक से इस सोच की लौ को तू बढ़ा
अपने और अपनों की दुआओं का दम ले कर
कुछ हताश एहसासों को कहीं छुपा कर
इस बार इस चिंगारी को न होने दे फ़ना
ये खामोश दहकते हुए मेरे जहन के शोले
बन जाएंगे आज तपिश, मेरे सोच का जूनून
शायद छू कर किसी खाकसार के आंसू को
बना देगा नायाब मोती उन अश्कों को आज
मेरे साथ ही रहेगी हर जंग मैं मेरी चिंगारी
न सिसकेगी किसी बंद कमरे में ये आज के बाद
न सिसकेगी किसी बंद कमरे में ये आज के बाद